यादें-1 | डॉ. कुँअर बेचैन के माहिया | जन्मदिन पर पुस्तक लोकार्पण 'कह लो जो कहना है' | अशोक चक्रधर

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  • čas přidán 30. 06. 2021
  • यादें-1 / कल डॉ. कुँअर बेचैन के जन्मदिन था, माहिया छंद में लिखी हुई उनकी नई पुस्तक 'कह लो जो कहना है' का लोकार्पण हुआ।
    लोकार्पणकार : अशोक चक्रधर
    यशस्वी कवि डॉ. कुंअर बेचैन अपनी प्रारंभिक काव्य-यात्रा में गीतकार थे। अचानक रचनाधर्मिता के किसी मुहाने से ग़ज़ल उन्हें पुकारने लगी। उस पुकार को उन्होंने अनसुना नहीं किया, लेकिन उसकी तरफ़ तत्काल बढ़े भी नहीं। ग़ज़ल की पुकार को सुनते रहे, सुनते रहे। और ग़ज़ल भी उन्हें अंगीकार करने के लिए अपनी पुकार को तीव्रतर करती रही।
    फिर एक ऐसा सौभाग्य-क्षण आया कि उनकी स्वयं की ललक ग़ज़ल की ओर बढ़ी। उनका एक शेर है, ‘किसी भी काम को करने की चाहें पहले आती हैं, अगर बच्चे को गोदी लो तो बाहें पहले आती हैं।‘ ग़ज़ल के लिए यह मनोभाव नया था। पारंपरिक ग़ज़ल तो महबूब के दायरे से मुश्किल से ही बाहर निकलती है, लेकिन डॉ. कुंअर बेचैन की ग़ज़ल बच्चे से लेकर मां तक के रिश्तों को रचनाधर्मी बाहों में भरती है। उनकी ग़ज़ल की बाहें सामाजिक हताशा-निराशा को भी सहर्ष गोद ले लेती हैं और उन्हें एक सकारात्मक सोचजन्य उपमाओं और बिम्बों में रूपांतरित करके उम्मीद की डगर दिखा देती हैं। उनकी ग़ज़ल कांच के शामियाने के आर-पार ज़िंदगी देखती है, उस पार ले जाने के लिए पानी रस्सी बन जाता है। उस पार के पत्थर तक बांसुरी बजाने लगते हैं। इंतज़ारों के महावर थिरकने लगते हैं।
    डॉ. कुंअर बेचैन मुहावरों को नई अर्थवत्ता देने वाले अनूठे ग़ज़लकार थे। दो-दो मिसरों में ख़ुशबू की लकीरें खींचते चलते थे। अंदर से कोई आवाज़ देता और दरवाज़े नहीं खुलते तो दीवारों पर भी दस्तक देते थे। उनकी ग़ज़ल मानव-प्रेम की ऐसी सुमधुर स्वरांजलि है, जो हर पल भरी रहती है। कविता के चाहक इस ग़ज़ल-कौशल पर क़ुर्बान हैं।
    जीवन के ताप और तेज उन्हें निरंतर गतिमान रखते थे। ‘जिंदगी यूं भी जली यूं भी जली मीलों तक, चांदनी चार क़दम धूप चली मीलों तक‘, उनकी ग़ज़ल में चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात नहीं थी। वहां सतत उजाला है, धूप है, आशा है, निर्माण है और भविष्य को सुखद करने की उत्कट कामना है। उनके अशआर मानव-कामनाओं के झूले हैं, पहिए हैं, वाहन हैं।
    प्रेम, आत्मीयता, संबंधों की मर्यादा और हृदयोष्मा को सदैव जीवंत रखने वाला डॉ. कुंअर बेचैन का अंतर्मन, रचनात्मक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, हर पल सजग, सचेत, और सकर्मक रहता था। उनका लिखा हुआ बहुत कुछ अभी प्रकाशित होना बाक़ी है। साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में उन्होंने लेखनी चलाई। हर बहर में गज़ल कहीं। हर छन्द में मुक्तक-गीत रचे। विदेशी छंदों में प्रयोग किए। गद्य लिखा, वह भी कवितोन्मुख।
    अचानक उनका ध्यान गया पंजाब की महिलाओं द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले माहिया छन्द पर।
    और बस, फिर माहिया छंद उनका हो गया। उनके बहुरंगी माहिया पढ़कर पाठक आनंदित होंगे और कवि प्रेरित।
    मैंने भी पहली बार चार माहिया लिख दिए-
    ये माहिया कुंअर के,
    हैं गीतों ग़ज़लों
    के इक राजकुंअर के।
    मनसे इनको पढ़ना,
    जीवन की सीढ़ी
    हौले हौले चढ़ना।
    मीठी पुरवाई है,
    देखन की मस्ती
    लेखन में आई है।
    कविता के राही आ
    तू टिक के जी ले
    बेचैन के माही-आ।
    --अशोक चक्रधर
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