ना ही सत्संग से, ना ही ज्ञान से फ़िर मिलता कैसे है वह ? | Kathopanishd/Upnishad | Nachiketa- Yamaraj

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  • čas přidán 25. 06. 2024
  • मैंने जो कुछ कहा है उसे 'श्रवण' करके, सुनने के बाद उसे ग्रहण अर्थात् 'मनन' करके, ग्रहण करने के बाद उसे बढ़ाकर--उतने तक ही सीमित न रहकर उसका 'निदिध्यासन' करके, वह 'अणु'-- सूक्ष्म ब्रह्म-प्राप्त होता है, सब धर्मों का भी वही लक्ष्य है । उस आनन्द-दायक 'ब्रह्म' को प्राप्त करके फिर आनन्द-ही-आनन्द मिलता है। हे नचिकेता, मैं समझता हूं कि तेरा द्वार खुल गया है--अब तेरे सम्मुख कोई रुकावट नहीं रही ॥१३॥
    नचिकेता ने कहा- "धर्म से, अधर्म से; कृत से, अकृत से; भूत से, भव्य से जो संसार की प्रत्येक वस्तु से भिन्न है, जिसे आप देखते हं उसका आप मुझे उपदेश दीजिये" ॥१४॥
    आचार्य ने कहा- "जिस पद (प्राप्तव्य, शब्द) का सब वेद बार- बार वर्णन करते हैं, सब तप जिसको पुकारते हैं, जिसको चाहना में ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, संक्षेप में वह शब्द तुझे बतलाता हूं- वह शब्द 'ओ३म्'- यह है" ॥१५॥
    "यह 'ओ३म्' एक अक्षर है, परन्तु यही ब्रह्म है, यही सबसे परे है, इसी अक्षर को जानकर जो कोई कुछ चाहता है उसे वह प्राप्त हो जाता है" ॥१६॥
    इसी सहारे को जानकर ब्रह्मलोक में मनुष्य महान् हो जाता "इसी का सबसे श्रेष्ठ सहारा है, इसी का सबसे अन्तिम सहारा है" ॥१७॥
    ब्रह्म का वर्णन करने के बाद अब आत्मा का वर्णन करते हुए यमाचार्य कहते हैं- "यह चेतन जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है, न यह किसी कारण से उत्पन्न हुआ है, न पहले कभी हुआ था । यह अजन्मा है, नित्य है, निरन्तर है, पुरातन है-शरीर के मरने पर भी यह नहीं मरता" ॥१८॥
    "अगर कोई मारने वाला यह समझता है कि में मार रहा हूं, ! अगर कोई मरने वाला यह समझता है कि में मर गया हूं-वे दोनों नहीं जानते, न यह मारता है, न मरता है" ॥१९॥
    ब्रह्म तथा आत्मा ब्रह्मांड तथा पिड - का वर्णन करने के बाद इनके आपस के सम्बन्ध के विषय में आचार्य कहते हैं- "जीवात्मा अणु है, सूक्ष्म है, परमात्मा अणु से भी अणु है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। सूक्ष्म में स्थूल नहीं रह सकता, स्थूल में सूक्ष्म रह सकता है। वह सब जगह है क्योंकि वह अणु से भी अणु, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि वह इतना छोटा है। वह तो महान् से भी महान् है। वह गुफ़ा में रहता है, परन्तु पहाड़ की गुफ़ा में नहीं, इसी जीव-रूपी जन्तु को हृदय-रूपी गुफ़ा में छिपा बैठा है। उसे कर्मों के जाल में, दुनिया के गोरखधंधों में फंसा हुआ व्यक्ति नहीं देख सकता, निष्काम-कर्मवाला हो उसे देख सकता है, जो बीत-शोक हो, जिसे किसी प्रकार का दुःख न हो। परमात्मा की महिमा को उस 'घाता' - संसार के धारण करने वाले के प्रसाद से ही, उस प्रभु को कृपा से ही जाना जा सकता है" ॥२०॥
    वह एक जगह पर आसीन होता हुआ, एक जगह पर ठहरा हुआ भी दूर-से-दूर पहुंच जाता है; आसीन होने की बात छोड़ो, वह अगर सो भी रहा हो, तो भी सब जगह पहुंचा होता है; मस्त होते हुए भी मस्ती रहित उस देव को मेरे सिवा और कौन जान सकता है ? " ॥२१॥
    "शरीर-धारियों में जो बिना शरीर के मौजूद है, अस्थिर पदार्थों में जो स्थिर-रूप से वर्त्तमान है, जो महान् है, विभु है, आत्मा है-- उसे मनन-पूर्वक जानकर धीर-पुरुष सोच-विचार में पड़कर दुःख नहीं मनाते" ॥२२॥
    "आत्मा बड़े-बड़े भाषणों से नहीं मिलता, तर्क-वितर्क से नहीं मिलता, बहुत-कुछ पढ़ने-सुनने से नहीं मिलता। जिसको यह वर लेता है वही इसे प्राप्त कर सकता है, उसके सामने आत्मा अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है" ।॥२३॥
    "जो व्यक्ति दुराचार से हटा नहीं, जो अशान्त है, जो तर्क- वितर्क में उलझा हुआ है, जो चंचल-चित्त वाला है, वह उसे प्राप्त नहीं कर सकता। उसे 'प्रज्ञान' द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है" ।।२४।॥
    वह है कहां ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं- "संसार दो शक्तियों का परिणाम है- 'विधायक' (Constructive) तथा 'विना- शक' (Destructive)- बनाने वाली तथा तोड़ने वाली । विधायक- शक्तियां भी दो तरह को है- 'आध्यात्मिक' (Spiritual) तथा 'भौतिक' (Physical) । 'आध्यात्मिक विधायक-शक्ति' का नाम 'ब्रह्म' है; 'भौतिक-विधायक-शक्ति' का नाम 'क्षत्र' है ।
    जिस आत्मा के सम्मुख विश्व की दोनों प्रकार की विधायक शक्तियां 'ब्रह्म' तथा क्षत्र'- ओदन की तरह है, भात की तरह है, वह इन दोनों को एक ग्रास में निगल सकता है, उसके विषय में कौन जान सकता है कि वह कहां है ? इन दो विधायक-शक्तियों के अतिरिक्त विश्व में एक तीसरी विनाशक-शक्ति भी है, उसका नाम 'मृत्यु' है। जैसे भात में घी सींचा जाता है, और उसे मजे में चट किया जाता है, इसी तरह चट करने वाली मृत्यु को भी जो बड़े स्वाद से चट कर जाता है उसके विषय में कौन जान सकता है कि वह कहां है ?" ॥२५॥
    video link. • जीवन जीने के दो मार्ग....
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