उपनिषदों की सबसे प्रमुख कथाओं में से एक | Yamacharya Aur Nachiketa Story | Kathopanishd | Upnishad

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  • čas přidán 15. 05. 2024
  • कठोपनिषद् प्रथमा वल्ली
    (नचिकेता तथा मृत्यु का उपाख्यान)
    नचिकेता वैश्वानर-अग्नि की भांति देदीप्यमान था, ब्राह्मण था । वह अतिथि के रूप में यमाचार्य के घरों में प्रवेश करता है। उन घरों में वैवस्वत-यमाचार्य के पुत्र आदि-जल आदि लाते हैं, पूछताछ करते हैं और उसे शान्त करते हैं ।॥७॥
    जिस छोटी बुद्धि वाले मनुष्य के घर में ब्राह्मण बिना भोजन के रहता है वह उसका सब-कुछ हर लेता है। जो बातें निश्चित हैं उनके पाने की मनुष्य को 'आशा' होती है, जो अनिश्चित हैं उनकी 'प्रतीक्षा' होती है। ऐसे व्यक्ति के आशा-प्रतीक्षा दोनों फल नष्ट हो जाते हैं। साधु पुरुषों की संगति और मीठी वाणी का फल भी नष्ट हो जाता है। 'इष्ट' अर्थात् जो यज्ञादि उसने किये हैं, और 'आपूर्त' अर्थात् जो कुएं, बावलो, धर्मशाला आदि उसने बनवाए हैं इन सबका फल हरा जाता है। पुत्र और पशु-जो-कुछ उसका है सब बेकार जाता है ।।८।।
    यमाचार्य जब आये तो उन्होंने कहा- "हे नमस्कार के योग्य ब्राह्मण, हे अतिथि, तीन रात तक बिना भोजन के तूने मेरे घर में वास किया है, तुझे मेरा नमस्कार हो। तुम्हारी पूछ-ताछ की गई थी पर फिर भी तुमने स्वयं मेरी प्रतीक्षा में भोजन नहीं किया । तो भी में पाव का भागी न होऊं इसलिये भोजन न करने के बदले मुझसे तीन वर मांग लो" ।।९।।
    नचिकेता का पहला वर--पिता शान्त हो
    नचिकेता ने पहला वर मांगा - "हे ! मृत्यो ! मेरा पिता गौतम शान्त-संकल्प हो, प्रसन्न-मन हो, क्रोध-रहित हो, और जब में आपके पास से अपने पिता के पास लौटूं तो मुझ से प्रसन्न होकर बोले । तीनों वरों में से पहला वर तो में यह मांगता हूं" ॥१०॥
    यमाचार्य ने वर देते हुए कहा- "तेरा पिता- उद्दालक वा अरुण का पुत्र गौतम-मृत्यु के मुख से तुझे छुटा हुआ देखकर जैसे पहले तुझ से प्रसन्न था वैसा ही प्रसन्न होगा । तुझे मृत्यु के मुख से छुटा हुआ देखकर क्रोधरहित होकर सुख की नींद सोयेगा" ॥११॥ नचिकेता का दूसरा वर- स्वर्ग-साधक अग्नि क्या है ?
    अब नचिकेता दूसरा वर मांगता है- "स्वर्ग-लोक में किसी प्रकार का भय नहीं है, न वहां तू है, न जरावस्था- इन दो ही से तो मनुष्य डरता है, वहां मृत्यु से भी भय नहीं, वृद्धावस्था से भी भय नहीं । स्वर्ग-लोक में भूख-प्यास इन दोनों प्रवाहों को तर लेते हैं, द्वन्द्वों से ऊपर उठ जाते हैं, शोक पीछे रह जाता है, आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है" ॥१२॥
    "हे यमाचार्य ! आप उस स्वर्ग प्राप्त कराने वाली 'अग्नि' को जानते हैं। हे मृत्यो ! में श्रद्धा-पूर्वक पूछता हूं, आप मुझे उसका उपदेश दें । जो स्वर्गलोक में जाते हैं उन्हें अमृतत्व- अमरता- प्राप्त होती है इसलिये 'स्वर्ग-साधक अग्नि' का आप उपदेश दीजिए । द्वितीय वर से में यही मांगता हूं" ॥१३॥
    यमाचार्य बोले--"हे नचिकेतः ! मैं उस 'स्वर्ग-साधक अग्नि' को जानता हूं। मैं कहूंगा, तू समझ । उसके द्वारा अनन्त-लोकों की प्राप्ति होती है, उन लोहों की वह आधार है। परन्तु हां, यह समझ ले कि वह 'अग्नि' गुहा में निहित है-उसका जानना-समझना एक रहस्य को समझने के समान है" ॥१४॥
    यमाचार्य ने नचिकेता को लोक की, अर्थात् स्वर्गलोक की साधक उस 'आदि-अग्नि' का उपदेश दिया। उस अग्नि के लिये जो-जो ईंटें चाहिये, जितनी चाहिये, जिस प्रकार की चाहिये--सब कहा । नचि- केता ने भी आचार्य ने जो-कुछ कहा था वह ठीक-ठीक वैसे ही सुना दिया । नचिकेता की इस कुशाग्र-बुद्धि को देखकर आचार्य बहुत सन्तुष्ट हुए और उन्होंने कहा--॥१५॥
    महात्मा यम अत्यन्त प्रसन्न होकर नचिकेता को कहने लगे-- "आज तुझे एक और वर देता हूं। यह 'अग्नि' तेरे ही नाम से प्रसिद्ध होगी । ले, अनेक रंगों वाली इस माला को ग्रहण कर ।" यह कहकर आचार्य ने स्वर्ग-साधक अग्नि का नाम 'नाचिकेत-अग्नि' रख दिया और उसे एक माला दो ॥१६॥
    जो 'त्रि-नाचिकेत' होगा, अर्थात् 'नाचिकेत-अग्नि' की ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ - इन तीन आश्रमों में उपासना करेगा, वह तीनों सन्धियों में से गुजर कर, तीनों कर्मों को करके, जन्म और मृत्यु को तर जायगा । ये तीन 'सन्धि' तथा तीन 'कर्म' क्या हैं ? जब ब्रह्म- चारी गृहस्थ में प्रवेश करता है तो इन दोनों आश्रमों के बीच की सन्धि में से गुजर जाता है; जब गृहस्थी वानप्रस्थ में प्रवेश करता है तब गृहस्य तया वानप्रस्थ की सन्धि में से गुजरता है; जब वानप्रस्थ से संन्यास में प्रवेश करता है तब वानप्रस्थ तथा संन्यास की सन्धि में से गुजरता है । इन तीन सन्धियों में से गुजरना, इन्हें पार कर जाना ही तीन कर्म हैं। जो इन तीन सन्धियों में से नहीं गुजरता वह किसी- न-किसी एक आश्रम में अटक जाता है। इस प्रकार प्रत्येक सन्धि में से गुजरने से एक-एक 'स्वर्ग-साधक-अग्नि' उत्पन्न होती है। अग्नि उत्पन्न ही सन्धि से दो वस्तुओं के गेल से होती है। एक-एक सन्धि के बाद एक-एक 'नाचिकेत-अग्नि' प्रकट होती है जो मनुष्य को स्वर्ग, अर्थात् अमृत की ओर ले जाती है। इस प्रकार तीन सन्धियों में से गुजर कर 'त्रि-नाचिकेत-अग्नि' की साधना होती है। इन तीन अग्नियों में से गुजर कर जो जीवन-क्रम बनता है वह 'ब्रह्म-यज्ञ' कहलाता है। जो व्यक्ति दिव्य गुणों से युक्त, स्तुति के योग्य 'ब्रह्म- यज्ञ' को जान जाता है, उसके विषय में निश्चय कर लेता है, वह अत्यन्त शांति को प्राप्त होता है ॥१७
    तीनों नाचिकेत-अग्नियों को जो इस प्रकार जान जाता है, और नाचिकेत-अग्नि का चयन करता है, वह आगे से मृत्यु के पाशों को काटकर, शोक से पार होकर, स्वर्ग-लोक में आनन्द से रहता है ।॥१८॥
    हे नचिकेतः ! स्वर्ग-साधक जिस अग्नि की तूने अपने दूसरे वर से जिज्ञासा की थी उसका तुझे उपदेश दे दिया। इस अग्नि को लोग तेरे ही नाम से कहा करेंगे। हे नचिकेतः ! अब तू तीसरा वर मांग ।।१९
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