श्री मुखसे स्वर्णिम स्मृतियाँ II Jagadguruttam Shree Kripaluji Maharaj

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  • čas přidán 11. 09. 2024
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    "जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज" (जगद्गुरु परिचय) - ये कौन हैं?
    "भक्ति की अंतिम परिणति का नाम महाभाव और महाभाव का मूर्तिमान विग्रह हैं श्री राधा। श्री कृष्ण रसिक शिरोमणि हैं,सम्पूर्ण अलौकिक रसों की निधि हैं। भक्ति और रस दोनों का अपूर्व सम्मिश्रण हैं ये 'कृपालु'।"
    बात 14 जनवरी 1957, की है। काशी के मूर्धन्य,शास्त्रज्ञ विद्वानों की सभा तथा उपस्थित विशाल जनसमूह,इनके मध्य एक तेजस्वी युवक उपस्थित हुए.....जिनकी आयु लगभग 34 वर्ष की होगी। उन्होने अपनी अलौकिक वाणी और प्रतिभा से सभी को मंत्र-मुग्ध कर दिया। गौर वर्ण,काले घुंघरारे बाल,बिजली के समान चमकता शरीर, प्रेम रस परिप्लुत सजल नेत्र, सभी का चित्त आकर्षित हो गया। सब कुछ भूल कर एकटक सब इनकी और देखते रह गये। कौन हैं ये? इनके रोम-रोम से प्रेम निर्झरित हो रहा है। इनको देखते रहो, देखते रहो, नेत्रों की तृप्ति नहीं होती बल्कि वे और अधिक प्यासे हो जाते हैं। उनके कठिन वैदिक संस्कृत में दिये गये 9 दिन के विलक्षण प्रवचन को सुनकर विद्वत समाज के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। सभी के मन में जिज्ञासा हुई,'ये कौन है?' इनके ज्ञान को देखकर लगता है यह कोई अवतारी महापुरुष हैं अथवा इन्होनें कायाकल्प किया हुआ है, क्योंकि इतना अधिक ज्ञान तो हजारों वर्षों के अध्ययन के पश्चात भी संभव नहीं हैं। और शास्त्रज्ञ ही नहीं, ये तो भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप प्रतीत होते हैं। सबके मानस पटल पर प्रश्नचिन्ह अंकित हो गया 'ये कौन हैं?'
    ऐसा पहले कभी नहीं सुना, कभी नहीं देखा। सब एक दूसरे से पूछने लगे - क्या आप इनको जानते हैं? जिला प्रतापगढ़ से आए हनुमान प्रसाद महाबनी जी ने जो इन युवक के साथ आये थे, सबकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बताया 'अधिक तो मैं भी इनके विषय में नहीं बता सकता, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि इनके अंदर ज्ञान का अगाध समुद्र छिपा हुआ है। मेरे पास तो ये पिछले कुछ वर्षों से आते हैं, मैंने कल्पना भी नहीं की थी की ये वैदिक संस्कृत में पारंगत हैं। कब, कहाँ शास्त्रों वेदों का अध्ययन किया यह मेरे लिए भी प्रश्न बन गया है,कभी कोई शास्त्र वेद की पुस्तक इनको पढ़ते हुए नहीं देखा। रामायण,भागवत,गीता कुछ भी कभी इनके पास कभी नहीं देखा। ये तो अपने पास कोई सामान भी नहीं रखते हैं, यहाँ तक की पहनने के कपड़े तक भी साथ लेकर नहीं चलते, जिसके घर जाते हैं उसी के कपड़े पहन लेते हैं और अपने कपड़े वहाँ छोड़ देते हैं।
    मैं तो यही समझता था कि यह संकीर्तन प्रेमी कोई रसिक हैं। मैंने कितनी बार इनको रोते,तड़पते,बिलखते देखा है। पूरी-पूरी रात ...हा कृष्ण! हा कृष्ण! कभी हा राधे! कहते हुए जमीन पर लोटने लगते हैं। श्यामा जू! राधे जू!!! कभी दीवारों का आलिंगन करने के लिए दौड़ते हैं, तो कभी वृक्षों से लिपट जाते हैं। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है, मानों नेत्र वर्षा ऋतु बन गए हों। शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं रहती, बेसुध हो जाते हैं। घंटों घंटों मूर्छित रहते हैं। थोड़ी सी चेतना आती है, पुन: फिर पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है,इनको असहाय वेदना हो रही है।
    अश्रु ,स्वेद,रोमांच,कंप,विवर्णता,सभी सात्विक भाव इनके अंदर प्रकट हुए देखके तो मुझे अनेक बार लगा कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आज समस्त शास्त्रों-वेदों के अलौकिक ज्ञान को देखकर मैं भी आश्चर्य चकित हूँ। मेरा तो इनके प्रति वात्सल्य भाव रहा है, जब इनहोने कहा कि मैं जगद्गुरु बनने जा रहा हूँ तो मैंने इनसे कहा,'जा जा शीशे में अपना मुह देख ले, कहीं ऐसा न हो मेरी नाक काटा दे'। लेकिन आज इनकी दिव्य वाणी को सुनकर काशी जो विश्व का गुरुकुल है,यहाँ के सभी विद्वान नतमस्तक हो गए हैं। मैं यही सोच रहा हूँ कि क्या ये वही युवक हैं जो मेरे पास रहकर संकीर्तन द्वारा प्रेम सुधारस का पान सभी भावुक भक्तों को कराते थे , या कोई और। मैं यही सोच रहा हूँ ये कौन हैं???
    ये कौन हैं? पश्चात समस्त विद्वानों ने एकमत होकर आपको "जगद्गुरूत्तम " की उपाधि से विभूषित किया।
    उन्होने स्वीकार किया कि चारों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का समन्वय करने वाला यह कोई अवतारी पुरुष ही है, इतनी अल्पायु में इतना अधिक ज्ञान साधारण प्रतिभा से असंभव है।
    लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अद्वैतवादी जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, लगभग आठवीं नवीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, 12वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य एवं लगभग14वीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य हुए। सभी के सिद्धान्तों में थोड़ा-थोड़ा मतभेद रहा है,वह भले ही देश काल-परिस्थिति के कारण रहा है।
    जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का सिद्धान्त बिलकुल अलग है और तीनों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों से।

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