Gupt Navratri | Gupt Durga Saptashati Path | गुप्त नवरात्रि गुप्त दुर्गा सप्तशती पाठ सर्व कार्य साधक

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  • čas přidán 22. 08. 2024
  • Gupt Navratri | Gupt Durga Saptashati Path | गुप्त नवरात्रि गुप्त दुर्गा सप्तशती पाठ सर्व कार्य साधक
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    सात सौ मन्त्रों की “श्री दुर्गा सप्तशती”, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी गुप्त-सप्तशती का पाठ है। यह “गुप्त-सप्तशती” प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
    इसके पाठ का क्रम :- प्रारम्भ में “कुञ्जिका-स्तोत्र”, उसके बाद “गुप्त-सप्तशती”, तदन्तर “स्तवन” का पाठ करें।
    कुञ्जिका-स्तोत्र ::
    पूर्व-पीठिका :-
    श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्। येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥
    न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥
    कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥ 3॥
    गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति। मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
    पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥
    अथ मंत्र ::
    ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।
    इति मंत्रः॥
    इस “कुञ्जिका-मन्त्र” का यहाँ दस बार जप करें। इसी प्रकार “स्तवन-पाठ” के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर “कुञ्जिका स्तोत्र” का पाठ करें।
    कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ ::
    नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
    नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि। जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
    ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥ क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
    चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥ विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
    धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा॥
    ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
    ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥
    वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे॥
    स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
    किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते॥7॥
    ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
    सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे॥
    जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
    देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते॥8॥
    ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
    त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री॥
    ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
    पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते॥9॥
    हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
    गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये॥
    वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
    हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि॥10॥
    स्तवन ::
    या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
    श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा॥
    ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
    सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥1॥
    ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
    क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले॥
    कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
    हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥2॥
    ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
    रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे॥
    लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
    कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥3॥
    ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
    निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने॥
    ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
    क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥4॥
    ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
    चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्॥
    स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
    सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥5॥
    ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
    विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन॥
    वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
    सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥6॥
    ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
    ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे॥
    हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
    हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥7॥
    ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
    रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते॥
    हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
    त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥8॥
    वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
    नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला॥
    रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
    उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे॥9॥

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