प्रियतम के भाव में दूरी समाप्त हो जाती है

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  • čas přidán 11. 09. 2024
  • रसमय उपदेश :
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की काव्य रचनाओं में जो रस सिक्त तत्त्वज्ञान भरा है, वह इस बात का द्योतक है कि उनका अपना व्यक्तित्व भक्ति के परमोज्ज्वल स्वरूप से ऊर्जस्वित, जीव कल्याण की करुणामयी भावना से द्रवित एवं श्रीराधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम रस से ओतप्रोत है। भक्तियोगरसावतार की उपाधि प्राप्त श्री कृपालु जी महाराज हमारे वर्तमान विश्व के पाँचवें मूल जगद्गुरु हैं। वेद-शास्त्रों के प्रमाणों पर आधारित उनके सारगर्भित प्रवचन तो वैदिक हिन्दू सनातन धर्म के वास्तविक सिद्धान्त को सरलता एवं स्पष्टता से समझने का प्रमुख आधार हैं ही, उनकी सरस संगीतमय संकीर्तन रचनाएँ भी सिद्धांत ज्ञान से परिपूरित हैं। श्री महाराज जी द्वारा रचित रसमय संगीतात्मक काव्य कृतियों में कितना गहन तत्त्व ज्ञान लबालब भरा है, इसका वास्तविक परिचय तब मिलता है जब वे स्वयं अपने स्वरचित संकीर्तनों की व्याख्या करते हैं। ये बहुत आकर्षक व्याख्याएँ हैं, जिनमें रस (भक्तियोगरसावतार) एवं उपदेश (जगद्गुरूत्तम) का कृपामय सामंजस्य है।
    यह वीडियो 'युगल रस' नामक काव्य संग्रह के एक रसमय संकीर्तन-
    'जा जा भरि पाई तोसों यारी करिके लँगर।'
    की व्याख्या
    (मनगढ़ साधना, दिनांक : 11.10.2000)
    पर आधारित है, जिसकी माधुरी का पान करते-करते सहज ही परमोत्कृष्ट उपदेश साधक के अंतर्मन में उतर जाता है।
    इस वीडियो के कुछ अंश हैं-
    "जब तक सेंट-परसेंट शरणागति न हो,
    मामेकं शरणं व्रज।
    तब तक भगवान कृपा नहीं करते।
    और, जिस भाव से जो प्यार करता है,
    चार भाव हैं न,
    दास्य भाव, सख्य भाव,
    वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव।
    भगवान स्वामी हम दास, ये सबसे नीचे का भाव।
    भगवान हमारे सखा, ये उससे ऊँचा भाव।
    भगवान हमारे बेटे, ये उससे ऊँचा भाव।
    भगवान हमारे प्रियतम, ये सबसे ऊँचा भाव।
    सबसे ऊँचा इसलिये है कि
    प्रियतम के भाव में ये लाभ है कि
    दूरी समाप्त हो जाती है।
    अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है जीव।
    नंबर दो, जब चाहो बेटा मान लो भगवान को,
    जब चाहो सखा मान लो,
    जब चाहो स्वामी मान लो।
    यानी चारों भावों में तुम जा सकते हो,
    अधिकार है इस माधुर्य भाव में, प्रियतम बनाने में।
    तो जो जिस भाव से भगवान से प्यार करता है,
    भगवान उसी भाव से उससे प्यार करते हैं।"
    -जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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