रामचरित मानस पाठ

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  • čas přidán 23. 06. 2024
  • सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥ हे स्वामी! आप अंतर्यामी हैं, इसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।।४।।

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