संत कवि लक्ष्मी सखी रचित अमर सीढ़ी का प्रथम पद : प्रो अमर नाथ प्रसाद द्वारा व्याख्या

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  • čas přidán 17. 06. 2024
  • संत कवि लक्ष्मी सखी: एक संक्षिप्त परिचय
    __प्रो. अमर नाथ प्रसाद
    अंग्रेजी विभागाध्यक्ष,
    जयप्रकाश विश्वविद्यालय ,छपरा, बिहार
    जीवनी
    ********
    अन्य महान संतों की तरह संत लक्ष्मी सखी जी महाराज के जीवन को जानना बहुत कठिन है क्योंकि संत लोग अपने बारे में बहुत कम लिखा करते थे।
    सारण की संत परंपरा में संत कवि लक्ष्मी सखी जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म सारण जिले के अमनौर (सुल्तान जॉन) गांव में कायस्थ कुल के गृहस्थ जगमोहन लाल जी के पुत्र के रूप में सन 1841 में हुआ था। बाल्यकाल से ये निवृत्ति मार्ग के पथिक थे जो एकांत जीवन,भक्ति एवं सत्संग को पाथेय मानते थे । प्राथमिक कक्षा में पढ़ने गए बालक लक्ष्मी सखी विद्यालय जाने के बाद गांव के बगीचे में अपना डेरा जमा लेते थे। डॉ ललन पांडे के शोध ग्रंथ "संत कवि लक्ष्मी सखी: साधना और साहित्य" के अनुसार " लक्ष्मी सखी बचपन से ही शांत चित्त तथा एकांत प्रेमी थे। अलौकिक पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। पिता की मृत्यु के बाद इनका मन पढ़ाई लिखाई में और भी नहीं लगने लगा । इनको किसी प्रकार अमनौर प्राथमिक विद्यालय में भेजा जाता था। लेकिन ये अक्सर भाग आते थे। इनके घर की पूर्व दिशा में एक बगीचा था । उसी बगीचा में यह पढ़ाई के बहाने चले जाते थे । बगीचा में घूमते घूमते तथा एकांत जगह अकेले बैठकर सोचते रहते थे । विद्यालय में कम जाना, अधिक समय बगीचे में ही चिंतन करना बढ़ता गया । घर से सरोकार मात्र खाने के लिए ही रह गया था । मां तथा भाइयों को यह बात मालूम हुई । सबने उन्हें समझाया। यहां तक कि उन्हें छड़ी भी खानी पड़ती, लेकिन बगीचे में बैठने की आदत बढ़ती ही जा रही थी । मां पुत्र की शिक्षा दीक्षा के कारण चिंतित थी। पर लक्ष्मी लाल कुछ और प्रकार की शिक्षा पाना चाहते थे"।
    इस प्रकार परिजनों ने विद्या अध्ययन के लिए बहुत प्रयत्न किया ।घर पर शिक्षकों को रखकर भी पढ़ाने की कोशिश हुई; परंतु नियति द्वारा आध्यात्मिक शिक्षा का केंद्र बिंदु निर्धारित हो चुका बालक भला कागजी शिक्षा को क्यों अपनाता? बालक लक्ष्मी लाल चाचा पंचालाल के साथ इलाहाबाद भेजे गए। वहां भी वे पढ़ ना सके।
    किशोरावस्था में परिजनों ने इनका विवाह करने का निश्चय किया । अब लक्ष्मी लाल बेचैन हो उठे। सांसारिकता के मकड़जाल में अपने को फंसता देख लक्ष्मी लाल औघड़ संतों की टोली के साथ घर से भाग गए ।घर छोड़ने के बाद परम सत्य की खोज में बाबू लक्ष्मी लाल अलग-अलग संत संप्रदायों तथा मठों में भ्रमण कर ज्ञान प्राप्त करने लगे । कालांतर में सरभंग संप्रदाय के संत भीनक राम की शिष्य परंपरा में ज्ञानी राम जी के ये शिष्य बन गए ।कुछ दिनों के बाद सरभंग समाज के रीति रिवाज, रहन-सहन भी इन्हें कचोटने लगा। ज्ञानी राम के शिष्य लक्ष्मी दास को अपने गुरु के चरित्र पर ही संदेह होने लगा ।जब लक्ष्मी दास ने इन त्रुटियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाही तो सरभंग समाज ने लक्ष्मीदास को अपना शत्रु समझ उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयत्न किया। लक्ष्मी दास ने ज्ञानीराम के कैथवलिया मठ को छोड़ दिया । कैथवलिया छोड़ने के बाद लक्ष्मी दास का सम्पर्क मधुबन स्टेट, मोतिहारी के दीवान से हुआ जो इन्हें अपने साथ मधुबन ले गए । मधुबन का वातावरण भी लक्ष्मीदास को रास नहीं आया ।वह गंडक नदी पार कर हथुआ राज के रेवतीथ दरबार में आ गए । रेवतिथ के बनकटी गांव में इन्होंने सवा महीना की समाधि लगाई । कुछ दिनों के बाद लक्ष्मीदास टेरूवां गांव में आ गए।
    क्रेतपुरा बंगरा गांव में लोगों की इनके प्रति बड़ी श्रद्धा हो गई। ये अवतारी पुरुष के रूप में जाने जाने लगे। कुछ दिनों के निवास के बाद लक्ष्मी दास टेरूवां से जाने की सोचने लगे । इन्होंने जाने का उपक्रम भी किया, किंतु वहां इनके भक्तों की प्रबल श्रद्धा ने उन्हें वहीं रुकने के लिए विवश कर दिया । टेरूवां में लक्ष्मी दास की आध्यात्मिक चेतना प्रदिप्त हो उठी। यहां वे छः माह तक समाधिस्थ रहे। प्रसिद्ध पुस्तक लक्ष्मी सखी साधना और साहित्य के अनुसार
    "अब महात्मा जी टेरुआ तपोभूमि को सुशोभित करने लगे । यहां उनकी कुटिया उनके मनोनुकूल स्थान पर ही बनी थी। सुना जाता है कि इसी स्थान पर 6 माह के लिए समाधि भी अंतिम बार हठयोग पद्धति पर लगाई थी । समाधि बनाने की व्यवस्था जनता ने की थी । उसी समाधि में बांस की नली द्वारा निर्धारित दिनों तक दूध दिया जाता था । दुग्ध आहार उपरांत वे अखंड समाधि में स्थिर हो गए थे , फलतः आदेशानुसार दूध बंद कर दिया गया। निर्धारित समय पर जब समाधि खोली गई तो उनका शरीर नर कंकालवत हो गया था। शरीर में दीमक लग गए थे और वह पीला रंग पर गया था, लेकिन मुख्य मंडल अलौकिक प्रसन्नता से दीप्त था । प्रेमी जनता ने शरीर में घी लगाकर तथा दूध पिला कर शरीर को धीरे-धीरे पुष्ट किया"।

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  • @amarnathprasad1028
    @amarnathprasad1028  Před 12 dny

    प्रसिद्ध पुस्तक लक्ष्मी सखी साधना और साहित्य के अनुसार
    "अब महात्मा जी टेरुआ तपोभूमि को सुशोभित करने लगे । यहां उनकी कुटिया उनके मनोनुकूल स्थान पर ही बनी थी। सुना जाता है कि इसी स्थान पर 6 माह के लिए समाधि भी अंतिम बार हठयोग पद्धति पर लगाई थी । समाधि बनाने की व्यवस्था जनता ने की थी । उसी समाधि में बांस की नली द्वारा निर्धारित दिनों तक दूध दिया जाता था । दुग्ध आहार उपरांत वे अखंड समाधि में स्थिर हो गए थे , फलतः आदेशानुसार दूध बंद कर दिया गया। निर्धारित समय पर जब समाधि खोली गई तो उनका शरीर नर कंकालवत हो गया था। शरीर में दीमक लग गए थे और वह पीला रंग पर गया था, लेकिन मुख्य मंडल अलौकिक प्रसन्नता से दीप्त था । प्रेमी जनता ने शरीर में घी लगाकर तथा दूध पिला कर शरीर को धीरे-धीरे पुष्ट किया"।
    इस प्रकार हठयोग के माध्यम से उन्हें परम सत्ता परम ब्रह्म परमेश्वर से साक्षात्कार हुआ । संत लक्ष्मीदास मात्र एक लंगोटी धारण किए अपनी साधना में लीन रहने लगे । तुलसी एवं मीरा के पदों का अध्ययन कर इनके मन में अपने आराध्य के प्रति माधुर्य भाव जाग उठा। सरभंग के अनुयाई लक्ष्मी दास अब लक्ष्मी सखी बन गए तथा ईश्वर को अपना पति मानते हुए उनका चाकरी करना इनका मुख्य धेय बन गया । जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री को एकमात्र उसका पति ही ध्येय होता है, उसी प्रकार लक्ष्मी सखी सर्वत्र अपने पति , मालिक या परम ब्रह्म को सर्वत्र देखने लगे। उनके पदों में "लक्ष्मी सखी के सुंदर पियावा " हर जगह आया है ।
    1909 ईसवी में वे साहित्य सर्जन में प्रवृत्त हुए तथा अमर सीढी, अमर कहानी, अमर विलास एवं अमर फरास नामक चार महान कृतियों को इनकी लेखनी ने जन्म दिया ।
    1913 ईसवी तक ये चारों ग्रंथ अस्तित्व में आ चुके थे। इस साहित्य सर्जना काल में ही इनके शिष्य रूप में श्री कमता सखी जी बड़े प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने सखी संप्रदाय को आगे बढ़ाने में अपनी उत्कृष्ट भूमिका निभाई। 28 अप्रैल 1914 को लक्ष्मी जी महाराज इस धाराधाम को छोड़ अपने पियवा में एकाकार हो गए । पौष पूर्णिमा के दिन ग्रंथ पूजन की परंपरा लक्ष्मी सखी जी ने आरंभ की थी। इसी को आधार मानकर सखी संप्रदाय से जुड़े मठों में पौष पूर्णिमा को ग्रन्थ पूजन का भव्य आयोजन किया जाता है।
    संत कवि लक्ष्मी सखी जी का जीवन हठयोग, समाधि एवं भक्ति की त्रिवेणी प्रवाहित करता रहा । अपने ग्रंथों के माध्यम से इन्होंने सांसारिक विषय वस्तुओं की नश्वरता को बताते हुए मन एवं इंद्रियों के द्वारा परब्रह्म से जुड़ने की प्रेरणा दी है। जिस प्रकार एक पत्नी अपने पति से कुछ भी ना छुपाते हुए केवल उसी की प्रसन्नता हेतु कार्य करती है, उसी प्रकार सखी संप्रदाय साख्य एवं माधुर्य भाव से परम पुरुष के सेवाराधन में लीन रहता है और ईश्वर रूपी पति को ही अपना सबकुछ मानता है।
    संत कवि लक्ष्मी सखी की संक्षिप्त जीवनी का वर्णन कमता सखी के पुत्र श्री अविनाशी सखी ( जिनका पवित्र समाधि स्थल छपरा शहर के प्रभुनाथ नगर, साढ़ा में स्थित है) ने की है। उनके अनुसार:
    "सन 1906 में श्री लक्ष्मी सखी यहां पधारे थे
    सारण जिला ग्राम है साढा वहीं पे पगु धारे थे।
    उस समय श्री कामता प्रसाद छपरा में थे भाई
    महात्मा का आगमन सुन वहां गए हरखाई ।
    सप्रेम वार्तालाप हुआ दोनों में सुनो भैया ।
    कामता प्रसाद ने गुरु माना उसी समय से भैया ।
    उस समय श्रीलक्ष्मी सखी रहते थे टेरूआ में।
    जो है गोपालगंज जिले में एक स्थान निर्जर में ।
    आना-जाना शुरू हुआ श्री कामता प्रसाद का भाई।
    उपदेश सुनते सुनते लग्न हुआ प्रभु में भाई।
    लक्ष्मी सखी एक हुए महान, जिनका है टेरूआ में अस्थान
    चार भाग ग्रन्थ को रचकर सतलोक को किया पेयान।
    प्रथम ग्रंथ अमर सीढी रचाई अमरलोक के पंथ लखाई।
    पठन से त्रिविध ताप मिटत भाई , भव उतरत में करत सहाई।
    दूजे ग्रंथ अमर कहानी रचाई ,जे सतलोक के कथा सुनाई ।
    सुनत में मन हरसाई और कान पवित्र होत है भाई ।
    तीजे ग्रंथ अमर विलास रचाई ,जे अपना पुरुष से दरस परस कराई।
    भोग विलास होत है भाई। भव उतारत बिना खेवाई।
    चौथे ग्रन्थ अमर फारास रचाई, जे प्रभु जी के बिछौना बिछाई।
    सूते के पलंगरी बिछाई, तेहि पर तोसक तकिया लगाई।
    चारो भाग चारु वेद कहाई, जिसके पठन से सुमार्ग लाखाई।
    कहे अविनासी श्री कामता सखी के बालक, प्रभु जी को देत है चिनाही।

  • @amarnathprasad1028
    @amarnathprasad1028  Před 12 dny

    संत कवि लक्ष्मी सखी: एक संक्षिप्त परिचय
    __प्रो. अमर नाथ प्रसाद
    अंग्रेजी विभागाध्यक्ष,
    जयप्रकाश विश्वविद्यालय ,छपरा, बिहार
    जीवनी
    ********
    अन्य महान संतों की तरह संत लक्ष्मी सखी जी महाराज के जीवन को जानना बहुत कठिन है क्योंकि संत लोग अपने बारे में बहुत कम लिखा करते थे।
    सारण की संत परंपरा में संत कवि लक्ष्मी सखी जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म सारण जिले के अमनौर (सुल्तान जॉन) गांव में कायस्थ कुल के गृहस्थ जगमोहन लाल जी के पुत्र के रूप में सन 1841 में हुआ था। बाल्यकाल से ये निवृत्ति मार्ग के पथिक थे जो एकांत जीवन,भक्ति एवं सत्संग को पाथेय मानते थे । प्राथमिक कक्षा में पढ़ने गए बालक लक्ष्मी सखी विद्यालय जाने के बाद गांव के बगीचे में अपना डेरा जमा लेते थे। डॉ ललन पांडे के शोध ग्रंथ "संत कवि लक्ष्मी सखी: साधना और साहित्य" के अनुसार " लक्ष्मी सखी बचपन से ही शांत चित्त तथा एकांत प्रेमी थे। अलौकिक पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। पिता की मृत्यु के बाद इनका मन पढ़ाई लिखाई में और भी नहीं लगने लगा । इनको किसी प्रकार अमनौर प्राथमिक विद्यालय में भेजा जाता था। लेकिन ये अक्सर भाग आते थे। इनके घर की पूर्व दिशा में एक बगीचा था । उसी बगीचा में यह पढ़ाई के बहाने चले जाते थे । बगीचा में घूमते घूमते तथा एकांत जगह अकेले बैठकर सोचते रहते थे । विद्यालय में कम जाना, अधिक समय बगीचे में ही चिंतन करना बढ़ता गया । घर से सरोकार मात्र खाने के लिए ही रह गया था । मां तथा भाइयों को यह बात मालूम हुई । सबने उन्हें समझाया। यहां तक कि उन्हें छड़ी भी खानी पड़ती, लेकिन बगीचे में बैठने की आदत बढ़ती ही जा रही थी । मां पुत्र की शिक्षा दीक्षा के कारण चिंतित थी। पर लक्ष्मी लाल कुछ और प्रकार की शिक्षा पाना चाहते थे"।
    इस प्रकार परिजनों ने विद्या अध्ययन के लिए बहुत प्रयत्न किया ।घर पर शिक्षकों को रखकर भी पढ़ाने की कोशिश हुई; परंतु नियति द्वारा आध्यात्मिक शिक्षा का केंद्र बिंदु निर्धारित हो चुका बालक भला कागजी शिक्षा को क्यों अपनाता? बालक लक्ष्मी लाल चाचा पंचालाल के साथ इलाहाबाद भेजे गए। वहां भी वे पढ़ ना सके।
    किशोरावस्था में परिजनों ने इनका विवाह करने का निश्चय किया । अब लक्ष्मी लाल बेचैन हो उठे। सांसारिकता के मकड़जाल में अपने को फंसता देख लक्ष्मी लाल औघड़ संतों की टोली के साथ घर से भाग गए ।घर छोड़ने के बाद परम सत्य की खोज में बाबू लक्ष्मी लाल अलग-अलग संत संप्रदायों तथा मठों में भ्रमण कर ज्ञान प्राप्त करने लगे । कालांतर में सरभंग संप्रदाय के संत भीनक राम की शिष्य परंपरा में ज्ञानी राम जी के ये शिष्य बन गए ।कुछ दिनों के बाद सरभंग समाज के रीति रिवाज, रहन-सहन भी इन्हें कचोटने लगा। ज्ञानी राम के शिष्य लक्ष्मी दास को अपने गुरु के चरित्र पर ही संदेह होने लगा ।जब लक्ष्मी दास ने इन त्रुटियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाही तो सरभंग समाज ने लक्ष्मीदास को अपना शत्रु समझ उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयत्न किया। लक्ष्मी दास ने ज्ञानीराम के कैथवलिया मठ को छोड़ दिया । कैथवलिया छोड़ने के बाद लक्ष्मी दास का सम्पर्क मधुबन स्टेट, मोतिहारी के दीवान से हुआ जो इन्हें अपने साथ मधुबन ले गए । मधुबन का वातावरण भी लक्ष्मीदास को रास नहीं आया ।वह गंडक नदी पार कर हथुआ राज के रेवतीथ दरबार में आ गए । रेवतिथ के बनकटी गांव में इन्होंने सवा महीना की समाधि लगाई । कुछ दिनों के बाद लक्ष्मीदास टेरूवां गांव में आ गए।
    क्रेतपुरा बंगरा गांव में लोगों की इनके प्रति बड़ी श्रद्धा हो गई। ये अवतारी पुरुष के रूप में जाने जाने लगे। कुछ दिनों के निवास के बाद लक्ष्मी दास टेरूवां से जाने की सोचने लगे । इन्होंने जाने का उपक्रम भी किया, किंतु वहां इनके भक्तों की प्रबल श्रद्धा ने उन्हें वहीं रुकने के लिए विवश कर दिया । टेरूवां में लक्ष्मी दास की आध्यात्मिक चेतना प्रदिप्त हो उठी। यहां वे छः माह तक समाधिस्थ रहे।