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  • čas přidán 11. 09. 2024
  • प्रथम जथामति प्रनऊँ (श्री) वृंदावन अति रम्य। श्रीराधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्य।।
    वर जमुना जल सींचन दिनहीं सरद बसंत। विविध भाँति सुमनसि के सौरभ अलिकुल मंत।।
    अरुन नूत पल्लव पर कूँजत कोकिल कीर। निर्तनि करत सिखी कुल अति आनंद अधीर॥
    बहत पवन रुचि दायक सीतल मंद सुगंध। अरुन नील सित मुकुलित जहँ तहँ पूषन बंधु ।|
    अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज। सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्वज पुंज।।
    रसिक रासि जहँ खेलत स्यामा स्याम किसोर। उभे बाहु परिरंजित उठे उनींदे भोर।।
    कनक कपिस पट सोभित सुभग साँवरे अंग। नील वसन कामिनि उर कंचुकि कसुँभी सुरंग।|
    ताल रबाब मुरज उफ बाजत मधुर मृदंग। सरस उकति गति सूचत वर बँसुरी मुख चंग।।
    दोउ मिलि चाँचरि गावत गौरी राग अलापि। मानस मृग बल वेधत भृकुटि धनुष दृग चापि।।
    दोऊ कर तारिनु पटकत लटकत इत उत जात। हो हो होरी बोलत अति आनंद कुलकात।।
    रसिक लाल पर मेलति कामिनि बंधन धूरि। पिय पिचकारिनु छिरकत तकि तकि कुंकुम पूरि।।
    कबहुँ कबहुँ चंदन तरु निर्मित तरल हिंडोल। चढ़ि दोऊ जन झूलत फूलत करत कलोल।।
    वर हिंडोर झँकोरनी कामिनि अधिक डरात। पुलकि पुलकि वेपथ अँग प्रीतम उर लपटात।।
    हित चिंतक निजु चेरिनु उर आनँद न समात। निरखि निपट नैंननि सुख तृन तोरतिं वलि जात।।
    अति उदार विवि सुंदर सुरत सूर सुकुमार। (जै श्री) हित हरिवंश करौ दिन दोऊ अचल विहार।।57।।
    अथ श्री हित हरिवंश जू कौ मंगल
    जै जै श्री हरिवंश व्यास कुल मंडना ।
    रसिक अनन्य्नी मुख्य गुरु जन भय खण्डना।।
    श्री वृन्दावन बास रास रस भूमि जहाँ ।
    क्रीडत श्यामा श्याम पुलिन मंजुल तहां ।।
    पुलिन मंजुल परम पावन त्रिविध तहां मारूत बहै ।
    कुञ्ज भवन विचित्र शोभा मदन नित सेवत रहै ।।
    तहाँ सन्तत व्यास नन्दन रहत कलुष विहण्डना ।
    जै जै श्री हरिवंश व्यास कुल मण्डना ।। १ ।।
    जय जय श्री हरिवंश चन्द्र उददित सदा ।
    द्विज कुल कुमुद प्रकाश विपुल सुख सम्पदा ।।
    पर उपकार विचार सुमति जग विस्तरी ।
    करुणासिन्धु कृपाल काल भय सब हरी ।।
    हरी सब कलिकाल की भय कृपा रूप जू वपु धरयौ।
    करत जे अनसहन निन्दक तिन्हूँ पै अनुग्रह करयौ ।।
    निरभिमान निर्वेर निरुपम निष्कलंक जू सर्वदा ।
    जय जय श्री हरिवंश चन्द्र उददित सदा ।। २ ।।
    जय जय श्री हरिवंश प्रशंसत सब दुनी ।
    सारासार विवेकत कोविद बहु गुनी ।।
    गुप्तरीति आचरण प्रगट सब जग दिये ।
    ज्ञान धर्म व्रत क्रम भक्ति किंकर किये ।।
    भक्ति हित जे शरण आये द्वन्द दोष जू सब घटे ।
    कमल कर जिन अभय दीने कर्म बन्धन सब कटे ।।
    परम सुखद सुशील सुन्दर पाहि स्वामिन मम घनी ।।
    जय जय श्री हरिवंश प्रशंसत सब दुनी ।। ३ ।।
    जय जय श्री हरिवंश नाम गुण गाई है।
    प्रेम लक्षणा भक्ति सुदृढ़ करी पाई है ।।
    अरु बाढ़े रसरीति प्रीति चित ना टरे ।
    जीति विषम संसार कीरति जग बिस्तरै ।।
    विस्तरै सव जग विमल कीरति साधु संगती ना टरै ।
    वास वृन्दाविपिन पावै श्रीराधिका जु कृपा करै ।।
    चतुर युगल किशोर सेवक दिन प्रसादहिं पाई है ।
    जय जय श्री हरिवंश नाम गुण गाई है ।। ४ ।।
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