पञ्चयम🙏 अष्टाङ्ग योगYam niyam kya hai अष्टांग योग क्या है
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- čas přidán 8. 06. 2024
- पञ्चयम🙏 अष्टाङ्ग योग
Yam niyam kya hai अष्टांग योग क्या है
अष्टांग योग की उपयोगित
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोsष्टावङ्गानि।। (योगसूत्र- 2.29)
यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान तथा 8. समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। इन सब योगांगों का पालन किये बिना कोई भी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। यह अष्टांग योग केवल योगियों के लिए ही नहीं, अपितु जो भी व्यक्ति जीवन में स्वयं पूर्ण सुखी होना चाहता है तथा प्राणिमात्र को सुखी देखना चाहता है, उन सबके लिए अष्टांग योग का पालन अनिवार्य है। अष्टांग योग धर्म, अध्यात्म, मानवता एवं विज्ञान की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरता है। इस दुनिया के आपसी संघर्ष को यदि किसी उपाय से रोका जा सकता है तो वह अष्टांग योग ही है। अष्टांग योग में जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर ध्यान एवं समाधि-सहित अध्यात्म की उच्चतम अवस्थाओं तक का अनुपम समावेश है। जो भी व्यक्ति अपने अस्तित्व की खोज में लगा है तथा जीवन के पूर्ण सत्य को परिचित होना चाहता है, उसे अष्टांग योग का अवश्य ही पालन करना चाहिए। यम और नियम अष्टांग योग के मूल आधार हैं।
यम
अष्टांग योग का प्रथम अंग है यम। यम शब्द ‘यमु उपरमे’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है - यम्यन्ते उपरम्यन्ते निवर्त्यन्ते हिंसादिभ्य इन्द्रियाणि यैस्ते यमाः ‘अर्थात् जिनके अनुष्ठान से इन्द्रियों एवं मन को हिंसादि अशुभ भावों से हटाकर आत्मकेन्द्रित किया जाये, वे यम हैं’। महर्षि पतंजलि ने इन यमों की परिगणना इस प्रकार की हैः
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।। (योगसूत्र- 2.30)
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं। अब हम यहाँ क्रमश इनका संक्षेप में वर्णन करते हैं।
(क) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ है किसी प्राणी को मन, वचन तथा कर्म से कष्ट न देना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी कष्ट न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी स्थान पर ‘किसी भी दिन’ किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, अपितु प्राणिमात्र से आत्मबल प्रेम तथा सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति मैत्री एवं करुणा की दृष्टि रखना यही यथार्थ रूप में अहिंसा है। महर्षि व्यास भी कहते हैं-
तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह। (योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.30)
(ख) सत्य- जैसा देखा, सुना तथा जाना हो, वैसा ही शुद्ध भाव मन में हो, वही प्राणी में तथा उसी के अनुरूप कार्य हो तो वह सत्य कहलाता है। दूसरों के प्रति ऐसी वाणी कभी नहीं बोलनी चाहिए, जिसमें छल-कपट हो, भ्रान्ति पैदा होती हो अथवा जिसका कोई प्रयोजन न हो। ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिससे किसी प्राणी को दुःख न पहुँचे। वाणी सर्वभूतहिताय होनी चाहिए। दूसरों की हानि करने वाली वाणी पापमयी होने से दुःखजनक होती है। अत परीक्षा करके सब प्राणियों का हित करने वाली वाणी का ही प्रयोग करना चाहिए। यही बात महर्षि व्यास सत्य के सम्बन्ध में कहते हैं ‘सत्यं यथार्थे वाङ्मनसी। यथादृष्टं यथानुमितं यथाश्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति। परत्र स्वबोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न बाधिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिबन्ध्या वा भवेदिति। एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता न भूतोपघाताय’।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.30)
(ग) अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। दूसरों की वस्तु पर बिना पूछे अधिकार करना अथवा शास्त्रविरुद्ध ढंग से वस्तुओं का ग्रहण करना स्तेय (चोरी) कहलाता है। दूसरों की वस्तु को प्राप्त करने की मन में लालसा भी चोरी है। अत योगी पुरुष को न तो चोरी करनी चाहिए, न ही किसी से करवानी चाहिए, अपितु अपने सात्विक व पूर्ण पुरुषार्थ से तथा भगवान् की कर्मफल व्यवस्था के अनुरूप या प्रकृति के विधान से जो कुछ हमें प्राप्त होता है उसमें पूर्ण सन्तुष्ट एवं आनन्दित रहना चाहिए।
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