महबूब | Mahabub | कविता |

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  • čas přidán 8. 09. 2024
  • मैं सलाम करता हूं
    उस गांव को
    जिस गांव के घर में
    तू पला बढ़ा मेरे महबूब
    मैं करता हूं सलाम
    उन गांव की गलियों को
    जिन गांव की गलियों में
    तेरा चलना फिरना
    हुआ मेरे महबूब
    पीते हो तुम
    जिस बावड़ी के पानी को
    उस पानी को
    मेरा सलाम मेरे महबूब
    उस की धूल लगा लूं
    अपने दिल से
    जिसे छुआ होगा
    तुमने अपने हाथो से मेरे महबूब
    तुम्हें छू कर
    गुजरी होगी जो हवा
    वो भरते हैं प्राण
    मेरी मरी हुई
    ख्वाहिशों में
    मेरे महबूब
    तेरी आंखों के
    नशे को
    मेरा सलाम
    एक दिन डूब जाऊंगा
    इनकी गहराइयों में
    मेरे महबूब
    घनी रात के अंधेरे को
    रोशन कर देता है
    तेरा कहीं से गुजरना
    मैं कभी भटकूंगा नहीं
    जो तेरा साथ मुझे मिले
    उम्र भर के लिए मेरे महबूब
    तुम से
    मिलने के बाद पता चला
    कितना कुछ
    लिखना बाकी है
    अभी मेरे महबूब
    ख्वाहिशों को जिंदा करने का
    जरिया तुम ही हो मेरे महबूब
    भेजा खुदा ने
    तुम्हें कुछ सोचकर
    मेरी जिंदगी में है
    जिंदा रहने का मक़सद
    मुझे मिल गया है मेरे महबूब
    देरी से मिलना हुआ तुमसे
    तुमने सिखाया ख्याल रखना
    कद्र करना मुझे
    मेरे महबूब
    माना कि कमियां
    तुम में और मुझ में हैं
    पर हम दोनो का
    इश्क झूठा नहीं है मेरे महबूब
    पल पल जीने की कला
    मैं तुमसे सिख रहा हूं
    हो जाऊंगा
    मैं भी कुछ खुशमिजाज
    बस हमारे
    साथ होने की जरूरत है मेरे महबूब।।।
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