अगर आप अपने जीवन में धनवान और सफल बनना चाहते हैं ,तो अपनाएं इन वास्तु नियमों को # Vastu Gyan

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  • čas přidán 7. 09. 2024
  • अगर आप अपने जीवन में धनवान और सफल बनना चाहते हैं तो अपनाएं इन वास्तु नियमों को
    नमस्कार मेरे प्यारे भारत वासियों मै आपका अपने चैनल में आपका स्वागत करता हूँ, वास्तु शास्त्र के अनुसार घर की बनावट और चीजों के कारण वास्तु दोष सबसे अधिक उत्पन्न होता है। ऐसे में घर के दोष से निजात पाने के लिए थोड़े से बदलाव कर दिए जाए तो सुख-समृद्धि और तरक्की की प्राप्ति होगी।
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    वास्तु शास्त्र के अनुसार, घर का एक-एक कोने से लेकर मौजूद हर एक चीज से सकारात्मक या फिर नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है, जो वहां रह रहे हर सदस्य के जीवन पर अच्छा या फिर बुरा असर डालते हैं। कई बार व्यक्ति की तरक्की से लेकर स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। कोई न कोई सदस्य हमेशा बीमार पड़ा रहता है। यहां तक ही वैवाहिक जीवन पर भी बुरा असर पड़ता है। हर छोटी-छोटी सी चीज बड़े विवाद का कारण बन जाती है। वास्तु के अनुसार घर में मौजूद चीजों के कारण दोष लगता है।
    प्राचीन इतिहास एवं धार्मिक दृष्टिकोण
    "जब हम वास्तुशास्त्र के वैदिक इतिहास पर आते हैं तो हमें सर्वप्रथम ब्रह्माजी की सृष्टि-रचना के विधान को ज समझना जरूरी है। सनातन धर्म में आस्था रखने पर इस संसार के आदि स्वरूप की संरचना में मात्र उस महाविराट ईश्वर को ही सर्वशक्तिमान कहा जा सकता है। भगवान के अतिरिक्त यह किसी के द्वारा संभव नहीं है कि वह अंडा और मुर्गी दोनों को एक साथ पैदा कर दे। ईश्वरीय कृपा का ही फल होगा जब संसार की जीव संरचना में जरायुज, स्वेदज, अण्डज तथा उद्भिज आदि को पलक झपकते ही पैदा करके उन्हें फिर 84 लाख योनियों में विभाजित कर दे। विस्तार रूप में कहें तो जरायुज अर्थात् गर्भस्थ रहकर जन्म लेने वाले जीव जैसे-मानव, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ता, शेर, हिरण, दानव, पिशाच ये सारे जीव जरायुज (जो जन्म के समय जेर में लिपटे होते हैं) कहलाते हैं। ये नर-मादा के संसर्ग के बाद गर्भ में रहते हैं फिर जन्म लेते हैं और परिपक्व होकर जीर्ण अवस्था में स्वतः समाप्त होते हैं। स्वेदज वे हैं, जिनका जन्म मात्र पसीने, बदबू या गंदगी में स्वतः हो जाता है जैसे-मक्खी, मच्छर, जूं, मकोड़े, खटमल आदि। इसी तरह तीसरे प्रकार के जीव अण्डज कहलाते हैं जिनमें मुर्गी, बत्तख, सांप, मछली, कीड़े, पक्षीगण आदि हैं। इसी प्रकार कुछ जीव भूमि के अंदर पैदा होते हैं जैसे कीड़े, दीमक, पेड़, पौधे, वृक्ष तथा समस्त फल-फूल-वनस्पति आदि। ये जमीन के अंदर बीज डालकर या बिना बीज के स्वतः पैदा होते हैं।
    ब्रह्माजी आदि सृष्टि के रचनाकार माने जाते हैं। उन्होंने जरायुज में भी हजारों किस्म के जीव-जंतु पैदा किये, जिनमें मनुष्य को पंच महाभूत योनि पांच तत्त्वों के मिश्रण से बनाया है। पंचतत्त्व है-आकाश, वायु, अग्नि (तेज), जल तथा पृथ्वी यानी मिट्टी। यद्यपि यह पांचों तत्त्व पंचमहाभूत जीव के शरीर में एक साथ दिखाई नहीं देते हैं परंतु नष्ट होने की स्थिति में आकाश, जल, अग्नि और वायु तत्त्व द्वारा पृथ्वी से शून्य में विलीन हो जाते हैं। इसके बाद शरीर मिट्टी होकर धरती में मिल जाता है।
    यह भी एक विचित्र सत्य है कि चार प्रकार के जीव-सृजन से सृष्टि बनी अर्थात् जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उ‌द्भिज । योनियों में से जरायुज की एक विशेष श्रेणी मनुष्य रूपी नर और मादा को विकसित किया। यही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ विवेकशील कृति है जिसे ब्रह्माण्ड ने प्रकृति के नियमानुसार बहुत ही आध्यात्मिक ढंग से बनाया। पांच तत्त्व के मनुष्य शरीर में चेतन-अवचेतन मस्तिष्क बनाया। इसमें आकाश तत्त्व से 'शब्द' यानी ध्वनि वाणी-आवाज की उत्पत्ति हुई। वायु तत्त्व से स्पर्श, अग्नि से भूख-प्यास, पाचन क्रिया तथा शक्ति का निष्पादन हुआ और जल से शरीर में रक्त, पसीना, वीर्य और रस की उत्पत्ति तथा पृथ्वी से गंध, स्वाद, रूप, आकार का निष्पादन हुआ। इन पंच महाभूतों से पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां, पांच प्राण, मन, बुद्धि, धैर्य, अहंकार और अनुराग हैं जो मनुष्य को अन्य जीवों की अपेक्षा श्रेष्ठ और इस शरीर को दुर्लभ बनाने में सफल हुए हैं।
    सृष्टि के आदि चरण में सभी जीव-जन्तु एक-दूसरे के भोज्य पदार्थ थे। कालान्तर में पृथ्वी पर वनस्पति, अन्न और फल आदि के विकसित होने पर मनुष्य जाति में संस्कार और संगठन की भावना का विकास हुआ। आगे चलकर ज्यों-ज्यों मानव-शरीर का आध्यात्मिक पक्ष उजागर हुआ त्यों-त्यों सृष्टिकर्ता ने उनके मार्गदर्शन के लिए भाषा, शास्त्र,वेद, पुराण, लिपि स्वर तथा कर्मेन्द्रिय के माध्यम से जीविका करने का साधन एकत्रित किया। 'मनुस्मृति' के अनुसार सभ्य मनुष्य समाज के कुछ नियम बनाये गये हैं जिसमें सोलह संस्कार पैदा होने से मृत्युपर्यन्त निर्वाह करने जरूरी हैं। यह सब बाद में धार्मिक क्रियाओं में समाहित हो गया।गीता' जैसे अद्भुत रहस्यमयी शास्त्र में भगवान ने समस्त संसार को अपने ही गण-स्वरूप का एक प्रारूप कहा है, जैसा ब्रह्माण्ड वैसा ही पिण्ड के अंदर है। बाद में ऋषि-मुनियों एवं दैवज्ञों की विशिष्ट योग दृष्टि ने हमें नक्षत्र, तारों और ग्रह मण्डल के बीच तारतम्य करके एक नई व्यवस्था दी। अर्थात् बौद्धिक मनुष्य ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के जीव चाहे अण्डज हो या स्वेदज, जरायुज हो या उद्भिज-अपने रहने-बढ़ने, फलने-फूलने, विकास के लिए एक सुरक्षित स्थान, आवास यानी घर की इच्छा रखते हैं।

Komentáře • 1

  • @NATURALISTBHARTIYADr.Sushma

    नमस्कार दोस्तों इस वीडियो को upload करते समय शुरुआत मेँ थोड़ा सां वीडियो पूरा upload नहीं हो पाया हैं , जिसमेँ introduction थी, आशा करती हूँ कि आप लोगों को हुई असुविधा के लिए आप लोग माफ़ कर देंगें. आप सभी से सहयोग की आशा के साथ 🙏🙏🙏🙏