Niru Ashra Dhyan Satr
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Vigyan Bhairav Tantra Sutra #21 kese mukat hoye sarir or man ki pida se..jane
Vigyan Bhairav Tantra 21
केंद्रित होने की नौवीं विधि:
“अपने अमृत भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदो, और भद्रता के साथ उस भेदन में प्रवेश करो, और आंतरिक शुद्धि को उपलब्‍ध होओ।”
PIERCE SOME PART OF YOUR NECTAR-FILLED FORM WITH A PIN, AND GENTLY ENTER THE PIERCING AND ATTAIN TO THE INNER PURITY.
यह सूत्र कहता है: ‘’अपने अमृत भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदों…..।‘’
तुम्‍हारा शरीर मात्र शरीर नहीं है, वह तुमसे भरा है, और यह तुम अमृत हो। अपने शरीर को भेदों, उसमें छेद करो। जब तुम अपने शरीर को छेदते, सिर्फ शरीर छिदता है। लेकिन तुम्‍हें लगता है कि तुम ही छिद गए। इसी से तुम्‍हें पीड़ा अनुभव होती है। और अगर तुम्‍हें यह बोध हो कि सिर्फ शरीर छिदा है, मैं नहीं छिदा हूं, तो पीड़ा के स्‍थान पर आनंद अनुभव करोगे।
सुई से भी छेद करने की जरूरत नहीं है। रोज ऐसी अनेक चीजें घटित होती है। जिन्‍हें तुम ध्‍यान के लिए उपयोग में ला सकते हो। या कोई ऐसी स्‍थिति निर्मित भी कर सकते हो।
तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई पीड़ा हो रही है। एक काम करो। शेष शरीर को भूल जाओ, केवल उस भाग पर मन को एकाग्र करो जिसमे पीड़ा है। और तब एक अजीब बात अनुभव में आएगी। जब तुम पीड़ा वाले भाग पर मन को एकाग्र करोगे तो देखोगें कि वह भाग सिकुड़ रहा है, छोटा हो रहा है। पहले तुमने समझा था कि पूरे पाँव में पीड़ा है, लेकिन जब एकाग्र होकर उसे देखोगें तो मालूम होगा कि दर्द पाँव में नहीं है। वह तो अतिशयोक्‍ति है, दर्द सिर्फ घुटने में है।
और ज्‍यादा एकाग्र होओ और तुम देखोगें कि दर्द पूरे घुटने में नहीं है। एक छोटे से बिंदु में है। सिर्फ उस बिंदु पर एकाग्रता साधो, शेष शरीर को भूल जाओ। आंखें बंद रखो और एकाग्रता को बढ़ाए जाओ। और खोजों कि पीड़ा कहां है। पीड़ा का क्षेत्र सिकुड़ता जाएगा। छोटे से छोटा हो जाएगा। और एक क्षण आएगा जब वह मात्र सुई की नोक पर रह जाएगा। उस सुई की नोक पर भी एकाग्रता की नजर गड़ाओ, और अचानक वह नोक भी विदा हो जाएगी। और तुम आनंद से भर जाओगे। पीड़ा की बजाएं तुम आनंद से भर जाओगे।
ऐसा क्‍यों होता है। क्‍योंकि तुम और तुम्‍हारे शरीर एक नहीं है। वे दो है। अलग-अलग है। वह जो एकाग्र होता है। वह तुम हो। एकाग्रता शरीर पर होती है। शरीर विषय हे। जब तुम एकाग्र होते हो तो अंतराल बड़ा होता है। तादात्‍म्‍य टूटता है। एकाग्रता के लिए तुम भीतर सरक पड़ते हो। और यह दूर जाना अंतराल पैदा करता है।
जब तुम पीड़ा पर एकाग्रता साधते हो तो तुम तादात्‍म्‍य भूल जाते हो। तुम भूल जाते हो कि मुझे पीड़ा हो रही है। अब तुम द्रष्‍टा हो और पीड़ा कहीं दूसरी जगह है। तुम अब पीड़ा को देखने वाले हो, भोगने वाले नहीं। भोक्‍ता के द्रष्‍टा में बदलने के कारण अंतराल पैदा होता है। और जब अंतराल बड़ा होता है तो अचानक तुम शरीर को बिलकुल भूल जाते हो। तुम्‍हें सिर्फ चेतना का बोध होता है।
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